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लोकतंत्र का बलात्‍कार

एफ.आई.आर. अंजुम नहीं, बी.एल.ओ. के खिलाफ हो

विशेष संवाददाता

     शिमला : बिहार चुनाव को लेकर जिस तरह की खबरें आ रही है वह यह बताने के लिए काफी हैं कि लोकतंत्र का बलात्कार खुले आम हो गया। जिन पर लोकतंत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी वही लोकतंत्र के बलात्कार के आरोपी साफ तौर पर नजर आ रहे हैं। लोकतंत्र की पहली कड़ी देश के नागरिक को ही माना गया है। भारतीय गणराज्य के एक सदस्य राज्य बिहार में जिस प्रकार नागरिकों की संप्रभुता का चीरहरण किया गया उसके सबूत मीडिया में वीडियो के रूप में मौजूद हैं और पूरा विश्व उसे देख रहा है।
     एसआईआर ने नाम पर मतदाता सूची में जिस प्रकार छलकपट और जबरन नागरिकों के वोट करने के अधिकार को छीनने के प्रयास का आरोप लगाया गया है वह लोकतंत्र की हत्या और बलात्कार ही है। जिस प्रकार एक पत्रकार अजीत अंजुम के चुनावी धांधली को उजागर करने पर उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई और वह किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है। एफआईआर तो उन बीएलओ के खिलाफ होनी चाहिए जो मतदाता सूची देखकर मतदाताओं के फार्म पर जाली हस्ताक्षर करवा कर वोट बनाने या काटने की प्रक्रिया में संलिप्त हैं। एफआईआर तो उन अधिकारियों के खिलाफ होनी चाहिए थी जिनकी देखरेख में लोकतंत्र के चीरहरण की पटकथा लिखी जा रही थी। आखिर बीएलओ सहित वहां मौजूद सभी अधिकारी भी भारत के नागरिक हैं और वह भारत के संविधान के खिलाफ कैसे गैर कानूनी काम में अपनी भूमिका निभा रहे थे।
     इस मामले में बिहार के तमाम बीएलओ के खिलाफ एफआईआर दर्ज होनी चाहिए और उनके बयान के बाद अन्य अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। इस आलोकतांत्रिक जांच की शुरुआत सभी बीएलओ से की जानी चाहिए, क्योंकि सारे षड़यंत्र का खुलासा उनके कृत्य और सबूतों से हो रहा है। यह जांच कितनी भी लंबी जाए इसे करवाने में पटना हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि बीएलओ पर ही यह आरोप लगाया जा सकता है कि उन्होंने ही भारत के लोगों की संप्रभुता और नागरिकता को चुनौती देने का कार्य ग्रास रूट पर किया है। जिसके तमाम सबूत आम लोगों और पत्रकारों के पास भी पहुंच चुके हैं।
     देश में जब भी कोई संगीन अपराध होता है तो मामला न्यायालय में जाता है। बिहार में मतदाता सूची बनाने का मामला भी अब न्यायालय में है। अब इस पर क्या अंतिम फैसला आता इसी की प्रतीक्षा में पूरा देश है। क्योंकि देश में अब लोकतंत्र बचेगा या समाप्त हो जाएगा यह देश की अदालतों पर निर्भर हो चला है। विधायिका और कार्यपालिका तो अब भारत के संविधान को बचाने के दायित्व से ऊपर उठ चुके हैं। उन्हें संवैधानिक दायित्व पूरा करने के लिए कहने वाली सिर्फ अदालतें ही बची हैं। वहां भी लोग कुछ जजों का मुंह ताकने तक ही सीमित हैं। नागरिक पहले यह कार्य चुनावों में कर देते थे पर अब तो लड़ाई ही नागरिकों के वोट बचाने की आ गई है। लोगों को अब अराधियों से अधिक डर देश की संवैधानिक संस्थाओं में बैठे अधिकारियों से लगने लगा है कि न जाने वह आरोपियों को बचाने के लिए मुख्य बात को कैसे मोड़ देगी और आवाज उठाने वाले के बचाव के रास्ते बंद हो जाएंगे।
     संदेहों और संशयों में चल रहे इस लोकतंत्र की तबाही तो पहले से ही हो चुकी है। अब तो देश का नागरिक यही बाट जोह रहा है कि लोकतंत्र को बचाने वाली ताकतें अभी जिंदा हैं या वह भी दफन हो चुकी हैं। बिहार चुनाव के लिए चल रही प्रक्रिया अब अदालत के रुख से सही दिशा पकड़ सकती है या नहीं पूरे विश्व की निगाहें भारत के इसी लोकतंत्र की ओर लगी हुई हैं। हलांकि विदेशों से भारत के लोकतंत्र की हत्या की निंदा अभी तक शुरू नहीं हुई है। यदि लोकतंत्र को बचाने वाली तमाम शक्तियां धराशाही हो गई तो फिर नागरिकों के माथे पर सिर्फ लोकतंत्र चस्पा रहेगा और देश तानाशाही युग में प्रवेश कर जाएगा।

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