नरेन्द्र मोदी
से पहले राजनाथ सिंह की विदाई जरूरी
अहमदाबाद समारोह में ही मोदी भाजपा से बड़े हो गए थे...
जिस प्रकार की जानकारियां सोशल मीडिया से मिल रही
हैं। उससे लगता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी से दो दो हाथ करने को तैयार बैठी है। लेकिन उससे पहले भाजपा नेता
केन्द्रीय मंत्री और पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को दरकिनार करना जरूरी हो
जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि राजनाथ ने ही अपने अध्यक्षीय काल में सभी
नियमों परंपराओं को ताक पर रखते हुए नरेन्द्र मोदी को सबसे आगे कर दिया था। बात
वर्ष 2013 के बाद जब नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार बनाया
जा रहा था तो राजनाथ सिंह ने ही पूरी भाजपा को नरेन्द्र मोदी के चरणों में डाल
दिया था।
राजनाथ सिंह ने ही अमहदाबाद में हुए एक समारोह में सभी परंपराओं को ध्वस्त करते
हुए मोदी को भाजपा से भी ऊपर खड़ा कर दिया था। यह भाजपा के स्थापना दिवस का
समारोह था। अब तो मोदी वैसे भी भाजपा से ऊपर पहुंच गए हैं और यह बात आरएसएस को
तब चुभने लगी है जब पिछले लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी पूरी पार्टी को
अकेले हांकते हुए पूर्णबहुमत तक नहीं ला सके थे।
वर्ष 2014 से पहले जब राजनाथ सिंह मोदी के साथ मिलकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल
बिहारी वाजपेयी के मंत्रियों को निपटा रहे थे तो शायद आरएसएस भी मोदी और राजनाथ
सिंह के समर्थन में खड़ी हुई थी और उसने कभी भी राजनाथ सिंह व मोदी को संगठन की
परंपराओं को ध्वस्त करने से नहीं रोका। पूर्व उप-प्रधानमंत्री
लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशंवत सिंह, शत्रुध्न सिन्हा और शांता
कुमार रोते रह गए लेकिन किसी ने उनकी एक न सुनी। आज वहीं आरएसएस मोदी से
छुटकारा पाने को तड़प रही है। आरएसएस को भय इस बात का है कि कहीं आरएसएस के
आक्रामक रूख का लाभ विपक्षी दल न उठा लें।
आरएसएस को आज वह समारोह का दिन याद करना चाहिए जब अहमदाबाद में वर्ष 2014 को
भाजपा ने अपना स्थापना दिवस मनाया था। स्थापना दिवस पर पार्टी के अध्यक्ष को
सर्वोच्य माना जाता है और वही पार्टी को अपने अध्यक्षीय भाषण से मार्गदर्शन
देता है। लेकिन इस स्थापना दिवस पर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बाद मोदी ने
अंत में सर्वोच्य पद वाला भाषण दिया था और राजनाथ की स्वीकारोक्ति के कारण तभी
मोदी भाजपा से ऊपर हो गए थे। तभी से कहा जाने लगा था कि मोदी भाजपा से ऊपर हो
गए हैं।
इसके बाद तो यह परंपरा ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ तक चली गई जबकि कहा यह जाना
चाहिए था कि ‘अबकी बार, भाजपा सरकार’। पर शायद तब आरएसएस को परंपराओं से अधिक
अपना स्वार्थ प्यारा लग रहा था और उसकी आंखों पर गांधारी पट्टी बंधी हुई थी।
शायद आरएसएस इस मद से बाहर तब निकली जब भाजपा के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने
यह कहकर आरएसएस को उसकी जमीन दिखा दी कि भाजपा को अब आरएसएस की जरूरत नहीं है।
इसके बाद भी नड्डा इसी तेवर में आरएसएस के समक्ष वही भाषा बोलते आ रहे हैं।
अब आरएसएस मोदी को और नड्डा को निपटाने पर तुली हुई है और उसके पास अब कोई
रास्ता नहीं बचा है। यह बात भी अब तय है कि आरएसएस को भी भाजपा के साथ सती होना
पड़ेगा। पिछले चुनावों में आरएसएस और भाजपा की संयुक्त ताकत लगाने के बावजूद
उन्होंने कई राज्यों के चुनाव हारे हैं। आरएसएस को भी इस बात का एहसाहस हो गया
है कि ‘हम तो डूबेंगेसनम, आरएसएस को भी ले डूबेंगे। इसीलिए आरएसएस भाजपा सरकार
की बलि देकर खुद को बचाने की नौबत तक आ खड़ी हुई है। यह सोच उसकी तब विकसित हुई
है जब माहौल ऐसा बन गया है कि आरएसएस चाहे भाजपा के साथ रहे या अलग हो जाए उसको
उसके कर्मों की सजा देने के लिए देश की जनता तैयार है। क्योंकि आरएसएस ने उस
समय अपनी आंखें बंद कर ली थी जब पूरा देश केन्द्र सरकार की नीतियों से त्रस्त
होकर आरएसएस की तरफ देख रहा था और वह मौन मुद्रा में थी।
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