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कितना पिछड़ गए हम 75वें स्‍वतंत्रता दिवस तक आते आते

हम गांधी-नेहरू का नाम लेकर ही अपनी पीठ थपथपाते हैं

     यह सबसे दुःखद पहलु है कि हम भारत के लोग अपने 75वें स्वतंत्रता दिवस तक आते आते दुनियां की रेस में बहुत पीछे रह गए हैं। हमारा यह पिछड़ापन सामाजिक सोच से लेकर आर्थिक, धार्मिक, व्यवसायिक, भुखमरी, गरीबी और न जाने कितने क्षेत्रों में स्पष्ट नजर आता है। शिक्षा और स्वास्थ्य में भी हम उन ऊंचाइयों को नहीं छू सके जहां विश्व के अन्य देश खड़े नजर आ रहे हैं। आंकड़ों के जाल में भले ही भारत वर्ष को कितना भी उच्च श्रेणी का हमारे नेता लोग बता देते हैं परंतु धरातल की वास्तविकता यही है कि उपरोक्त किसी भी क्षेत्र में हम पूरे देश को आगे नहीं ले जा सके हैं। इसके लिए कोई भी दोषी नहीं है हम भारत के लोगों के अतिरिक्त। क्योंकि हमारे संविधान निर्माता इस देश को हम भारत के लोगों के हवाले करके गए हैं।
     यहां हम किसी भी राजनेता या सरकार को भारत के पिछड़ेपन का कारण नहीं बता रहे हैं क्योंकि उन्हें चुनने का अधिकार भी हमारे संविधान निर्माता हम भारत के लोगों को ही सौंपकर परलोक चले गए थे। हम भारत के लोगों ने न अच्छी सरकारों का चयन किया न अच्छे समाजसेवियों को संरक्षण दिया और न अच्छे उद्योगपतियों के उत्पादों को अपनाया। शिक्षा और स्वास्थ्य में भी हम विदेशी विश्व विद्यालयों और विदेशी अस्पतालों का गुणगान ही करते रहे हैं। हमने अपने शिक्षण संस्थानों को कभी भी उन संस्थानों के बराबर खड़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया जिनके हम मुरीद रहे हैं। इन 75 सालों में हम महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का नाम लेकर ही अपनी पीठ थपथपाते रहे हैं। हमने कभी यह प्रयास नहीं किया कि हम एक और गांधी, एक और नेहरू को इस धरती पर जिंदा उतार सकें। हमने आलोचना से प्रेरित होकर न जाने कितने महापुरुषों को पप्पू बनाने का ही काम किया है और अपनी पूरी ताकत इसमें झौंक दी।
     आजादी के 75 सालों में हमने जो वोया है वह काटने का समय अब हम भुगत रहे हैं। हरित क्रांति का परचम उठाने वाला भारत, आज वह भारत बन गया है जो अपनी आबादी के 50 प्रतिशत से अधिक लोगों को पांच किलो अनाज मासिक देकर जिंदा रखने के मुहाने पर पहुंच गया है। औधोगिक क्रांति की बात करने वाला देश अपनी छोटी औधोगिक इकाइयों को बचाने के लिए चीन पर निर्भर हो गया है। छोटी घरेलु चीजें भी हमें विदेश से मंगवानी पड़ रही हैं। हमारे पास तो पीने का स्वच्छ पानी तक नहीं है और हमें प्लास्टिक की बोतलों में भरा शुद्ध जल पीना पड़ रहा है।
     आजादी के समय 85 फीसदी कृषकों का यह देश अब 60 फीसदी कृषकों का देश रह गया है। देश में किसान भी ऐसा हो गया है कि वह एक फसल के लिए तो किसान है और अपनी ही अन्य जरूरतों के लिए वह भी बाजार का एक उपभोक्ता बनकर रह गया है। वह अपने और अपने परिवार लिए भी एक साल का अनाज भंडारण करने की स्थिति में नहीं है। कहा तो यह जा रहा है कि किसानों में भी 80 फीसदी किसान बहुत गरीबी की हालत में है और खुदकुशी करने की श्रेणी में खड़ा हुआ है।
     अब तो देश के हालात ऐसे हैं कि हमें हर जरूरत की चीज अपने खेत खलियान से नहीं किसी उद्योग से बनी चाहिए। ब्रांड हमारे दिमाग में इतना हावी हो चुका है कि टॉयलेट का साबुन भी अब हमें ब्रांडिड चाहिए। जाहिर है कि जब लोग उद्योगों पर इतना निर्भर हो गए हैं और हमें हर चीज उद्योग में बनी ही चाहिए तो भारत के इतने बड़े उपभोक्ता बाजार में उद्योगपतियों का ही तो राज होगा। उद्योगपतियों की दौड़ में सबसे बड़ी मार लोगों पर ही पड़ती है। क्योंकि उद्योगपति का पहला धर्म मुनाफा कमाना होता है। इस मुनाफे को कमाने के लिए वह सबसे पहले राजनीति को अपने नियंत्रण में लेते हैं। राजनेता उनका मुनाफा बढ़ाने के लिए योजनाएं बनाते हैं।
     कुल मिलाकर भारत की कामोवेश यही दशा है और इस दशा से भारत को बाहर निकलने के लिए हम भारत के लोग कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं। लोग यदि खुद को इस धरती के अनुकूल अच्छा बना लें तो राजनीति भी अच्छी हो जाएगी और अन्य चीजें भी।

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