मां शूलिनी को
जानने की जिज्ञासा
मां दुर्गा कहो
या मां शूलिनी
शूलिनी के मेले को देखने हजारों लोग दूर दूर से सोलन नगर में आते
हैं। पूरे नगर में मेले के दौरान खानपान के निशुल्क भंडारे लगाए जाते हैं। तीन
दिन तक चलने वाला यह मेला पूरे भारत वर्ष में इसलिए भी प्रसिद्धि प्राप्त करता
जा रहा है कि जहां शिमला और आसापास के क्षेत्र पर्यटकों को आकर्षित करने में
लगे रहते हैं वहीं सोलन नगर में मेले के तीनों दिन दिन रात निशुल्क खानपान के
भंडारे लगे रहते हैं। पूरा नगर मेले के अदभुत रंग में रंगा रहता है। इन तीन
दिनों में रात दिन बाजारों में चहल पहल रहती है।
यहां आए दर्शकों और श्रद्धालुओं में यह जानने की जिज्ञासा बनी रहती है कि आखिर
मां शूलिनी का इतिहास क्या है और यहां के लोग इस मेले को मनाने के लिए इतने
उत्सुक क्यों रहते हैं। मां शूलिनी जिसे मां दुर्गा का रूप माना जाता है, का
हमारे शास्त्रों में क्या स्थान है। दुर्गा सत्पती में महार्षि मार्कण्डेय मां
दुर्गा का मां काली के रूप में प्रकट हो जाने का वर्णन करते हैं। उसी में जब
महिषासुर राक्षस और उसकी राक्षसी सेना का शूल हाथ में लिए मां काली वद्य करती
है तो मां काली के रूप में उतरी मां दुर्गा को उस समय मां शूलिनी भी कहा गया।
क्योंकि वह शूल हाथ में लेकर राक्षसों का वद्य करती है। दुर्गा सतप्ती में
महार्षि उस दृश्य का वर्णन करते हैं और बताते हैं कि मां शूलिनी महिषासुर
संग्राम में कैसे दिखती थी। उसके विक्रल रूप को देखकर भय लगता है।
खड्गिनी शूलिनी घोर गदिनी चक्रिणी तथा ।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ।।
अर्थातः उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, शिर के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण
के हैं इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखायी देती हैं।
...तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने..
अर्थात मंत्रों की सिद्धि में विघन् उपस्थित करने वाले शापरूपी कीलक का जो...
मां दुर्गा अपने द्वितीय स्वरूप में ब्रह्मचारिणी के रूप में जानी जाती है।
मां शूलिनी के इसी रूप को मेला के दौरान पूजा जाता है। शास्त्रों में मां
शूलिनी का जिक्र अक्सर लोग नवरात्रों में होने वाले अनुष्ठानों में सुनते हैं।
कहते हैं बघाट रियासत के शासक पंवार वंशज राजपूत शक्ति पूजा में बहुत आस्था
रखते थे। अपनी कुलदेवी के प्रति उन्हें अटूट श्रद्धा थी। इसलिए सदियों पूर्व
बघाट के अस्तित्व में आने के साथ ही इस मेले का आयोजन शुरू हो गया। बघाट और
इसके साथ लगती अन्य रियासतों के लोगों को भी शक्ति के शूलिनी रूप में भी बहुत
आस्था रही है। इसी कारण हिमाचल के सिरमौर, शिमला व बिलासपुर जिलों व पड़ोसी
राज्यों से भी श्रद्धालु मेले में मां के दर्शन करने के लिए आते हैं। कुछ
विद्वान तो शूलिनी को शिव शक्ति के सर्वशक्तिमान ‘त्रिशूल’ का पर्याय मानते
हैं।
अब परंपरा यह बन गई है कि मेले के पहले दिन शुक्रवार को सुबह सोलन गांव में
शूलिनी मंदिर में शाही परिवार के सदस्यों व नगर के गणमान्य व्यक्तियों की
उपस्थिति में मां की पूजा-अर्चना के साथ हवन यज्ञ किया जाता है। दोपहर के समय
मां की धातु की दो सुंदर मूर्तियों को श्रद्धापूर्ण पालकी में बिठा कर बाजार
में शोभायात्रा निकाली जाती है। इसके साथ ही मां के नाम पर मनाया जाने वाला
मेला शुरू हो जाता है। श्रद्धालुओं द्वारा सजाई गई पालकी के आगे प्राचीन वाद्य
यंत्रों ढोल, नगाड़े, करनाल, रणसिंगा, शंख की पवित्रा गूंज के साथ, भजन मंडलियों
के समूह चलते हुए मेले की शोभा बढ़ाते हैं। हजारों लोग मां शूलिनी के दर्शन करने
के लिए बड़े समूह के रूप में बाहर निकल आते हैं। रास्ते में भक्तजन एवं
श्रद्धालु मां की आरती उतारते हुए चले, साथ ही पुष्प वर्षा भी करते रहते हैं और
लोग बड़ी श्रद्धा से मां का प्रसाद ग्रहण करते हैं। पालकी के आगे क्षेत्र के कई
देवी-देवताओं की झांकियां मां की अगुआई करते हुए चलती हैं। इनका आयोजन यहां की
विभिन्न समितियां और युवा संगठन करते हैं। शोभायात्रा चौक बाजार, पुरानी कचहरी,
अप्पर बाजार और माल रोड से होते हुए देर शाम को गंज बाजार स्थित मां दुर्गा
मंदिर पहुंचती है। वहां मां शूलिनी और मां दुर्गा दोनों बहनें आपस में मिलती
हैं। छोटी बहन मां शूलिनी वहां दो दिन की मेहमानी के बाद तीसरे दिन यानी मेले
के अंतिम दिन (रविवार) अपनी बड़ी बहन मां दुर्गा से विदाई लेकर वापस सोलन गांव
अपने (मंदिर) स्थान पर लौट जाती है।
रियासतों के समय में राजा के विशेष आमंत्रित मेहमान, जिनमें अंग्रेजी सरकार के
वरिष्ठ अधिकारी, नवाब व राजे-महाराजे शामिल होते थे। अब वह स्थान प्रदेश के
गणमान्य व्यक्तियों ने ले लिया है। वह इस मेले, विशेषकर शोभायात्रा में जरूर
शरीक होते हैं। बड़े-बूढ़ों के मुताबिक यह मेला उस समय भी आयोजित होता रहा, जब
बघाट की राजधानी कोटी, जौणाजी और बोच हुआ करती थी। बाद में बघाट की राजधानी
सोलन बनने पर इस मेले को और व्यापक स्तर पर आयोजित किया जाने लगा।
पहले मेला गंज बाजार के दुर्गा मंदिर के पीछे सीधे बड़े खेतों में आयोजित किया
जाता था, लेकिन समय के साथ शहर बड़ा होता चला गया। अब वहां मकान ही मकान बन गए
हैं। इसलिए पिछले करीब चालीस सालों में इसका आयोजन ठोडो मैदान में होता है। समय
के साथ मेला मनाने का अंदाज भी बदल गया है। किसी जमाने में किसान इस मेले में
घी, शहद, ऊन अदरक व आलू व अन्य चीजें बेचने के लिए लाते थे और घर का अन्य सामान
यहां से खरीदकर ले जाते थे। लोग तीन दिन तक यहीं ठहरते थे। यहां की परंपरागत
नाटिका ‘करयाला’ देख कर आनंदित होते थे। उस समय यहां बिजली नहीं थी। इसलिए
रौशनी के लिए रात भर भलेठी (बिहुल की छिली हुई टहनियां) जलाकर रखते थे। मेले से
देर रात निकटवर्ती क्षेत्रों को लौटते समय वे भलेठी जलाकर रास्ते में रोशनी
करते हुए चलते थे। अब पूरे नगर को रंगबिरंगी रौशनी से सजाया जाता है। चारों ओर
मेले की चमक नजर आती है। दूर-दराज के क्षेत्रों से रात के समय पैदल चलना अब बंद
हो गया है।
सन् 1972 में सोलन जिला बनने के बाद इस मेले के साथ ‘ग्रीष्मोत्सव’ भी जोड़ दिया
गया। इसमें हर शाम को देश भर से आए सांस्कृतिक दल, फिल्मी हस्तियां, कव्वाल
वगैरा अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। कुछ वर्ष पहले इस मेले की ऐतिहासिक
महत्ता को समझते हुए इसे भी राज्यस्तरीय मेले का दर्जा दे दिया है। कुश्तियां
पुराने समय से ही इस मेले का मुख्य आर्कषण रही हैं। मेला में इस बार भी दो दिन
दंगल का विशेष आयोजन रखा गया है। यहां किंगकांग, गामा, गुंगा, हरबंससिंह,
घसीटा, किक्कर व कल्लू जैसे नामी पहलवानों ने सोलन की माटी को छुआ है। प्राचीन
ठोडा (तीरंदाजी) मेले के मुख्य आकर्षणों में से एक है।
इस बार भी पूरा सोलन नगर मां शूलिनी मेले के रंग में रंगना शुरू हो गया है।
सोलन का तीन दिवसीय ऐतिहासिक शूलिनी मेला हर साल आषाढ़ (जून) माह में लगता है।
पूर्व बघाट (सोलन) रियासत के शाही परिवार की अधिष्ठात्री देवी मां शूलिनी के
प्रति सम्मान, श्रद्धा व आस्था जताने के लिए यह सालाना आयोजन होता है। मेले के
पहले रोज शूलिनी माता सोलन गांव से सोलन नगर में अपनी बड़ी बहन दुर्गा मात से
उनके गंज बाजार स्थित मंदिर में मिलने के लिए दो दिन के प्रवास के लिए आती है।
बड़े-बूढ़ों के मुताबिक मां शूलिनी के नाम पर इस नगर का नाम ‘सोलन’ पड़ा था। मां
शूलिनी को ‘भगवती’ ‘दुर्गा’ और ‘काली’ का ही एक रूप माना जाता है।
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