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हर साल आषाढ़ में लगता है शूलिनी मेला

सभी धर्मों के लोगों के साथ मेले को मनाने की परंपरा...

निजी संवाददाता

     सोलना : सोलन का तीन दिवसीय ऐतिहासिक शूलिनी मेला हर साल आषाढ़ (जून) माह में लगता है। पूर्व बघाट (सोलन) रियासत के शाही परिवार की अधिष्ठात्री देवी मां शूलिनी के प्रति सम्मान, श्रद्धा व आस्था जताने के लिए यह सालाना आयोजन होता है। मेले के पहले रोज शूलिनी माता सोलन गांव से सोलन नगर में अपनी बड़ी बहन दुर्गा मात से उनके गंज बाजार स्थित मंदिर में मिलने के लिए दो दिन के प्रवास के लिए आती है।
     बड़े-बूढ़ों के मुताबिक मां शूलिनी के नाम पर इस नगर का नाम ‘सोलन’ पड़ा था। मां शूलिनी भगवती का ही एक रूप माना जाता है। बघाट रियासत के शासक पंवार वंशज राजपूत शक्ति पूजा में बहुत आस्था रखते थे। अपनी कुलदेवी के प्रति उन्हें अटूट श्रद्धा थी। इसलिए सदियों पूर्व बघाट के अस्तित्व में आने के साथ ही इस मेले का आयोजन शुरू हो गया।
     कहते हैं यहां के राजा विक्टोरिया दलीप सिंह और कंवर दुर्गा सिंह सभी धर्मों का आदर करते थे और हिन्दु धर्म के पर्वों पर सभी धर्म के लोगों को आमंत्रित भी करते थे। यही परंपरा आज भी कायम है। आजादी के समय जब देश भर में हिन्दु और मुस्लिम समुदाय के लोग एक दूसरे का कत्ल करने पर उतारू थे। उस समय कंवर दुर्गा सिंह ने टैंक रोड स्थित लड़कों के स्कूल में मुसलमानों के लिए राहत शिविर लगाया था। जिससे यहां रहने वाले कई मुसलमानों की जान बचाई गई थी। कहने का अर्थ यह है कि सोलन नगर की परंपरा में सभी को सम्मान देने का भाव सदियों पुराना है। जिस भाव को सदा जिंदा रखने का प्रयास यहां रहने वाले हर नागरिक को आज भी करना चाहिए।
     इस वर्ष भी मेले में यही परंपरागत भावना देखने को मिली। मां शूलिनी की शोभायात्रा में सभी धर्मों के लोगों ने इसमें अपना योगदान दिया। पूरे नगर में हजारों लोग एकता के सुर में मेले का आनंद लेते हुए नजर आए। मेहमानों को आदर के साथ अपनी भागीदारी के लिए आमंत्रित किया गया। कुल मिलाकर इस मेले का जहां हिन्दु धर्म के लोगों के लिए धार्मिक महत्व है वहीं अन्य धर्म के लोगों को भी इस मेले में अपनेपन का एहसास होता है।
     कहते हैं सोलन में आकर बसने वाले लोग यहीं के होकर रह गए हैं और उनकी आस्था मां शूलिनी में दिन प्रतिदिन प्रगाड़ होती चली जा रही है। यही वजह है कि लोग जगह जगह पर निशुल्क भंडारे लगाकर मेले में आए मेहमानों का स्वागत करते हैं और भाई चारे की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। लोग यहां की प्राचीन पहचान को बनाए रखना चाहते हैं।

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