शूलिनी मेला विशेषांक 2025
प्रशासन की भूमिका कम होनी
चाहिए शूलिनी मेले में
विशेष संवाददाता
सोलन
: शूलिनी मेले में जिला प्रशासन की भूमिका को कम किया जाना जरूरी हो गया
है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अधिकारी बाहर से नौकरी करने आते हैं और उन्हें
मेले की परंपराओं का कोई ज्ञान नहीं होता है। सत्तारूढ़ दल के स्थानीय नेता जैसा
चाहते हैं, वैसा वह करते जाते हैं। इससे मेले पर कई प्रकार की कुरीतियों के दाग
भी लगने लगे हैं।
जिला प्रशासन मां शूलिनी के मेले में सिर्फ समर फैस्टिबल का आयोजन करवाता है।
जबकि मां शूलिनी के मेले में मां शूलिनी की पालकी निकालना ही असल में शूलिनी
मेला कहलाता है। मां शूलिनी की पालकी निकालने की परंपरा शुरू से ही स्थानीय
लोगों की जिम्मेदारी रही है। इस पर जो खर्च आता है उसे स्थानीय लोग ही वहन कर
लेते थे और शायद अब भी चंदा एकत्र करके इसे आयोजित करने की क्षमता रखते हैं।
जिला प्रशासन का मंदिर में दखल ट्रस्ट बनाकर सरकार ने कर दिया है, यह अलग विषय
है।
मेले से जिला प्रशासन को दूरी इसलिए भी बना लेनी चाहिए क्योंकि अब इस मेले के
नाम पर जो पैसा एकत्र किया जाता है उस पर लोगों को संशय बना रहता है। साथ ही
इसे जिस प्रकार से मां शूलिनी के नाम पर खर्च किया जाता है वह भी सदा संदेह के
घेरे में ही रहता है। जिला प्रशासन की जिम्मेदारी कानून व्यवस्था को बनाए रखने
की होती है और उसके लिए चंदा एकत्र नहीं किया जाता है। यदि मां शूलिनी के नाम
पर अथा राशि को एकत्र न भी किया जाए तो भी जिला प्रशासन को अन्य मेलों की तरह
अपने पैसे खर्च कर यह कानून व्यवस्था करनी ही पड़ेगी।
मेले के नाम पर चंदा एकत्र करने के लिए कहते हैं शातिरों ने इस बार अपनी अलग से
पर्चियां भी छपवा ली थी। अब इस बात में कितना सच या झूठ छुपा है यह तो जिला
प्रशासन ही बता सकता है। कुल मिलाकर यह संदेह व्यक्त किया जाता है कि मेले के
नाम पर चंदा एकत्र करने में पूरी तरह से ईमानदारी नहीं बरती जाती है। साथ ही
उसे खर्च भी बड़ी बेदर्दी से किया जाता है। समर फेस्टिबल में देश के नामी
कलाकारों को बुलाने की परंपरा तो अब समाप्त ही हो गई है। अब तो बहुत कम पैसा
लेने वाले कलाकारों को महंगे दामों पर बुला लिया जाता है। स्थानीय कलाकारों का
जो निरादर मेले की सांस्कृतिक संध्याओं में होता रहा है वह किसी से छुपा हुआ
नहीं है।
ठोडो मैदान में आयोजित होने वाले मेले में जिस प्रकार ठेकेदार बोलियां लगाकर
झूले लगाते हैं और जो दाम मेला कमेटी तय करती है उससे कई गुणा दाम वह जनता से
वसूल करते हैं। इस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। प्रशासन की ओर से गुमराह
करने वाले आदेश दिए जाते हैं। कभी कहा जाता है कि हाई कोर्ट ने पर्यावरण को ठीक
रखने के लिए भंडारों पर सफाई शुल्क लगाने का आदेश दिया है फिर बाद में इसे माफ
भी कर दिया जाता है। भला हाई कोर्ट के आदेश को इस तरह हल्के में लिया जा सकता
है। साफ पता चलता है कि गुमराह करने के लिए हाई कोर्ट का नाम ले लिया जाता है।
मेले के नाम पर एक नहीं, कई खामियां गिनाई जाती रही हैं और फिर अगले वर्ष वह
खामियां फिर दोहराई जाती हैं। इन पेचिदगियों से पार पाने का सिर्फ एक ही रास्ता
बचता है कि जिला प्रशासन मेले में अपनी भूमिका को सीमित कर दे ताकि यदि मेले
में कोई लूट की गुंजाइश वयां की जाती है तो उसका जिम्मेदार जिला प्रशासन न बने।
यह भी कहा जाता है कि समरफैस्विल के नाम पर ही सबसे बड़ी हेराफेरी की संभावनाएं
जताई जाती हैं। जबकि समरफैस्टिवल का शूलिनी मेला से कोई लेना देना नहीं है।
स्थानीय कलाकारों की सांस्कृतिक संध्या को जिला प्रशासन ने समरफैस्टिवल बना
दिया है जिसमें कई लाख रुपए एकत्र किए जाते हैं। मां शूलिनी का जो असली मेला है
उस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। जिला प्रशासन को मां शूलिनी की पालकी की
व्यवस्था पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए ताकि हर व्यक्ति मां शूलिनी के दर्शन कर
सके और श्रद्धापूर्वक अपना माथा टेक सके।
इस मेले को राजनैतिक मेला नहीं बनाना चाहिए। कई वर्षों से लगने लगा है कि यह
मेला उसी पार्टी के कब्जे में चला जाता है जिसकी सरकार प्रदेश में विराजमान
होती है। हद तो यह हो गई है कि आमंत्रण कार्ड तक सत्ता से जुड़े लोगों को सरकारी
कर्मचारी पहुंचाते हैं। सरकार के लाखों रुपए खर्च होने के बाद भी मेला एक
राजनैतिक पार्टी का होकर रह जाता है। यह व्यवस्था ठीक तभी हो सकती है जब
प्रशासन का डंड इस मेले से दूर हो जाए।
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