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महिषासुर संग्राम में त्रिशूलिनी ही मां शूलिनी है

विशेष संवाददाता

     मां शूलिनी को शिव शक्ति के सर्वशक्तिमान ‘त्रिशूल’ का पर्याय मानते हैं। पुराणों में इस बात का जिक्र आता है जब मां दुर्गा महिषासुर राक्षस का वध करने के लिए काली का रूप धारण करती है। इसी संग्राम के जब मां काली त्रिशूल से युद्ध करती है तो वह त्रिशूलिनी कहलाती है और जब एक नोक वाले शूल से प्रहार करती है तो वह त्रिशूलिनी कहलाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मां शूलिनी ही काली है और मां काली ही मां शूलिनी है।
     बघाट रियासत के शासक शक्ति पूजा में बहुत आस्था रखते थे। बघाट और इसके साथ लगती अन्य रियासतों के लोग शक्ति के रूप में मां शूलिनी के उपासक थे। यही वजह है कि आज भी हिमाचल के सिरमौर, शिमला व बिलासपुर जिलों व पड़ोसी राज्यों से श्रद्धालु हर साल मेले में मां शूलिनी के दर्शन करने के लिए आते हैं। अब परंपरा यह बन गई है कि मेले के पहले दिन शुक्रवार को सुबह सोलन गांव में शूलिनी मंदिर में शाही परिवार के सदस्यों व नगर के गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में मां की पूजा-अर्चना के साथ हवन यज्ञ किया जाता है। दोपहर के समय मां की धातु की दो सुंदर मूर्तियों को श्रद्धापूर्ण पालकी में बिठाकर बाजार में शोभायात्रा निकाली जाती है। इसके साथ ही मां दुर्गा या भगवती के नाम पर मनाया जाने वाला शूलिनी मेला शुरू हो जाता है।
     पूर्व बघाट (सोलन) रियासत के शाही परिवार की अधिष्ठात्री देवी मां शूलिनी के प्रति सम्मान, श्रद्धा व आस्था जताने के लिए शूलिनी मेला का आयोजन किया करते थे। पुरानी परंपरा के अनुसार तीन दिवसीय मेले के पहले दिन मां शूलिनी अपने स्थान से अपनी बड़ी बहन दुर्गा के मंदिर में मिलने के लिए आती है। पुराने लोग बताते हैं कि मां शूलिनी के नाम पर इस छोटे से कस्बे का नाम ‘सोलन नगर’ पड़ा था। हलांकि अब इसका क्षेत्रफल और जनसंख्या में भी भारी वृद्धि हो गई है और अब यह एक बड़ा नगर बन चुका है। सोलन में नगर पालिका के बाद सोलन में नगर परिषद बनाई गई थी, जो अब नगर निगम का स्थान ले चुकी है। सोलन स्थित मां शूलिनी को मां भगवती, मां दुर्गा और मां काली का ही एक रूप माना जाता है।
     लोगों को यह जानने की जिज्ञासा बनी रहती है कि आखिर मां शूलिनी का इतिहास क्या है और हमारे शास्त्रों में मां शूलिनी का क्या स्थान है। महार्षि मार्कण्डेय दुर्गा सत्पती में मां दुर्गा के मां काली के रूप में आ जाने का वर्णन करते हैं। उसी में जब महिषासुर राक्षस और उसकी राक्षसी सेना का शूल हाथ में लिए वद्य करती है तो मां काली को उस समय मां शूलिनी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। दुर्गा सतप्ती में महार्षि उस दृष्य का वर्णन करते हैं और बताते हैं कि मां शूलिनी महिषासुर संग्राम में कैसे दिखती थी। उसके विक्रल रूप को देखकर हर किसी को भय लगता है।


खड्गिनी शूलिनी घोर गदिनी चक्रिणी तथा ।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ।।


     अर्थातः उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, सिर के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण के हैं इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखाई देती है। शस्त्रों में मां शूलिनी को अलग अलग रूप में प्रस्तुत किया गया है। कुल मिलाकर मां शूलिनी को मां दुर्गा और मां काली का ही एक रूप माना जाता है। जिसकी पहचान पूरे देश भर में है।


...तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने..


     अर्थात मंत्रों की सिद्धि में विघन् उपस्थित करने वाले शापरूपी कीलक का जो... मां दुर्गा अपने द्वितीय स्वरूप में ब्रह्मचारिणी के रूप में जानी जाती है। मां शूलिनी को मां दुर्गा के किसी भी रूप में पूजा जा सकता है।


     शूलिनी मेला के अवसर पर निकलने वाली पालकी के आगे प्राचीन वाद्य यंत्रों ढोल, नगाड़े, करनाल, रणसिंगा, शंख की पवित्रा गूंज के साथ, भजन मंडलियों के समूह चलते हुए मेले की शोभा बढ़ाते हैं। शोभायात्रा चौक बाजार, पुरानी कचहरी, अपर बाजार और माल रोड से होते हुए देर शाम को गंज बाजार स्थित मां दुर्गा मंदिर में पहुंचती है। वहां दोनों बहनें आपस में मिलती हैं। छोटी बहन मां शूलिनी वहां दो दिन की मेहमानी में रहती है और इसी अवसर को शूलिनी मेला के रूप में मनाया जाता है।
     पिछले करीब एक दशक से यहां स्थानीय लोगों ने निःशुल्क भंडारे लगाने का रिवाज शुरू किया था। उस समय उनकी मंशा यही थी कि जो लोग बाहर से मेला देखने आते हैं वह भूखे प्यासे न रहें। यही परंपरा आगे बढ़ती रही और अब आलम यह है कि अब हर पांच दस दुकानों को छोड़कर किसी न किसी बड़े भंडारे का आयोजन चला रहता है। दुकानदार लोग प्रतिदिन अपनी आय का एक हिस्सा मां शूलिनी के नाम रखते हैं और मेले के दौरान एकत्र की गई राशि से लोगों के खानपान का भंडारा कर देते हैं।।

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