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शूलिनी मेला विशेषांक 2024

शूलिनी मेले की परंपराएं ध्‍वस्‍त होती गई

संजय हिंदवान

     सोलन : समय के काल चक्र के साथ साथ मां शूलिनी मेले और मंदिर की परंपराएं ध्वस्त होती चली गई इसका सबसे बड़ा कारण है हिमाचल प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन सेलन का चोर दरवाजे से मंदिर संचालन और मेले के आयोजन में अनावश्यक प्रवेश। मां शूलिनी मेला बघाट रियासत के समय से सोलन नगरवासी मनाते चले आ रहे थे। उस समय देश में अंग्रेजी हुकूमत थी। लेकिन वह मेले में किसी प्रकार की दखलंदाजी नहीं करते थे। तब इस मेले में का आयोजन बघाट के राजा विक्टोरिया दलीप और उनके बाद राजा दुर्गा सिंह अपनी पौराणिक परंपराओं के अनुसार करवाया करते थे। सन् 1971 में जिला प्रशासन के दखल के बाद इसमें समरफैस्टिवल को जोड़ दिया गया।
     आजादी के बाद बघाट रियासत का विलय 1948 में भारतीय गणराज्य में अन्य रियासतों की तरह हो गया था। वर्ष 1949 में, उस समय की संविधान सभा के साथ इस शर्त पर रियासतों का विलय भारतीय गणराज्य में किया गया था कि वह रिसासतों की परंपराओं को ध्वस्त नहीं करेंगे। लेकिन अब बधाट रियासत के उसी शूलिनी मेले पर तब की लगभग सभी परंपराएं टूटती जा रही हैं। इन परंपराओं का जिक्र करना सोलन के लोगों को यहां के इतिहास से अवगत करवाना है।
     सन् 1971 से पहले इस मेले का आयोजन सोलन नगर में रहने वाले बाशिंदे और राजसीय परिवार के सदस्य मिल जुलकर किया करते थे। लेकिन अब सत्तारूढ़ दल के राजनेता इस मेले पर पूरी तरह से हावी हो चुके हैं। बघाट रियासत के समय में तो सत्तारूढ़ सरकार के अंग्रेज अफसर भी इस मेले में शामिल हुआ करते थे लेकिन वह इसके आयोजन में कोई दखलंदाजी नहीं किया करते थे। मेले का आयोजन गंज बाजार जिसका पुराना नाम ‘अखाड़ा बाजार’ था वहां खेतों में हुआ करता था। मां शूलिनी भी परंपरानुसार यहां स्थित दुर्गा मंदिर में अपनी बहन के पास तीन दिन के प्रवास पर आया करती थी। मेले का मुख्य आकर्षण कुश्ती या दंगल हुआ करता था। तब यहां देश के मशहूर गामा और किंगकॉग जैसे पहलवान भी दंगल में भाग लेने आया करते थे। अब जबसे सरकार ने इस मेले के आयोजन को अपने हाथों में लिया है, स्थानीय पहलवानों से दिल बहलाया जा रहा है।
     इस मेले में प्रशासननिक दखलंदाजी की शुरुआत समरफैस्टिवल से हुई। कहते हैं तब देवी नाराज भी हुई और समरफैस्विल को मेले से अलग करना पड़ा था। बाद में फिर इसे मेले के साथ ही जोड़ दिया गया। मां शूलिनी की झांकी को भी वृह्द रूप दिया गया और इसे लक्ष्मी सिनेमा हॉल या पुराने डीसी आफिस चौक तक पहुंचा दिया गया। कुछ वर्ष बाद मां शूलिनी मंदिर का अधिग्रहण हिमाचल सरकार ने जबरन कर लिया। तब इस बात का ध्यान भी नहीं रखा गया कि यह भारत के संविधान के खिलाफ है।
     इसके बाद तो पुजारी से लेकर मंदिर के भवन तक का नक्शा बदल दिया गया। मंदिर के गुंबद पर लहराया जाने वाले ध्वज से ऊंची इमारतें मंदिर परिसर में ही खड़ी कर दी गई। अभी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के समय भी यह बात सामने आई कि मंदिर का गुंबद मंदिर में विराजमान भगवान का ललाट (सिर) होता है और उस पर लहराया जाने वाला ध्वज भगवान के बाल होते हैं। यह बात जगत गुरुशंकराचार्य ने टीवी चैनलों के माध्यम से देशवासियों को बताई है। अब शूलिनी मां के मंदिर में यह बात लागू क्यों नहीं की गई यह तो मंदिर को चलाने वाले ट्रस्टी ही बता सकते हैं। मंदिर ट्रस्ट ने यहां के पुजारियों को पहले तन्खवैया बनाया और फिर अन्य पुजारियों के हलावे करके उस परंपरा को भी ध्वस्त कर दिया जो भारत के संविधान में आज भी दर्ज है।
     यह सब कैसे हो गया इसका कारण यहां गठित एक बघाट सभा भी है। जिसके गठन की कोई शर्त किसी को पता नहीं है। इस सभा का गठन करते हुए जिला प्रशासन और सरकार ने सत्ता के नशे में मदहोश होकर राजस्व रिकार्ड तक देखने की जहमत नहीं उठाई कि भारत का संविधान लागू होने से पहले बघाटी सभा के सदस्यों के पूर्वज कहां रहा करते थे और उनका वास्तविक संबंध भी बघाट रियासत से है भी या नहीं। कहते हैं यही सभा जिला प्रशासन और सरकार को मां शूलिनी के बारे में धार्मिक, एतिहासिक और पौराणिक जानकारियां उपलब्ध करवाती है और जिला प्रशासन सत्ता के दबाव में उसकी जांच करके कभी आगे नहीं बढ़ा।
     मंदिर और मां शूलिनी मेले की बात अब बहुत पुरानी हो चुकी है और हमारी राय भी यही है कि अब इस विवाद में पड़ने का कोई लाभ नहीं है। वैसे भी सोलन का इतिहास कोई बहुत बड़ा नहीं है। यहां सभी लोग बाहर से आकर बसे हैं, इसलिए नगर पर सभी का समान अधिकार है। जनगणना के आंकड़े यदि उठाकर देखे जाएं तो 1901 के जनगणना के अनुसार सोलन नगर में मात्र 61 लोग ही रहा करते थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 1801 में तो यहां शायद कोई भी नहीं रहता होगा। सोलन में सभी धर्मों और लगभग सभी प्रांतों के लोग आपस में प्रेम से रहते हैं। सभी मां शूलिनी के अनन्य भगत भी बन गए हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मां शूलिनी को मां काली का एक रूप माना गया है और पूरे भारत वर्ष में मां काली को मानने वाले करोड़ों लोग हैं।
     अब सभी लोग यह भी जानते हैं कि मेले का जितना बड़ा स्वरूप आज तक बन गया है इसे जिला प्रशासन और सरकार के सहयोग के बिना आयोजित नहीं किया जा सकता है। लेकिन धार्मिक परंपराएं बनी रहें इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाना चाहिए। सत्तारूढ़ सरकार के लोगों के वर्चस्व के चलते सुनी सुनाई बातों पर कार्यवाही करने से पहले उसकी प्रमाणिकता की जांच भी कर लेनी चाहिए। वरना ऐसा न हो कि मेला कहां से शुरू हुआ और कहां पहुंच गया इसका पता ही न चले। जिला प्रशासन को यह भी चाहिए कि इस पौराणिक मेले के इतिहास को समझते हुए कम से कम उन परंपराओं का पालन किया जाए जिससे मां शूलिनी का इतिहास और धार्मिक आस्थाओं पर लोगों का अटूट विश्वास और मजबूत हों। लोग भी इसकी धार्मिक मान्यताओं को संजोकर रखने में अपनी भागिदारी सुनिश्चित करते चले जाएं।

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