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सुप्रीम कोर्ट का राज्‍यपालों पर प्रहार

राष्‍ट्रप‍ति पर और व्‍याख्‍या हो जाती तो अच्‍छा होता...

विशेष संवाददाता

     शिमला : पिछले दिनों भारत के सुप्रीम कोर्ट ने देश के राज्यपालों की भूमिका पर कड़ा प्रहार किया है। इस व्याख्या में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को भी पकड़ लिया। सुप्रीम कोर्ट यदि राष्ट्रपति की भूमिका पर भी स्थिति और अधिक स्पष्ट कर देता तो यह लोकतंत्र के लिए काफी अच्छा होता। बैंच ने प्रांतीय सरकारों के बीच खड़े होने वाले विवादों पर भारत के संविधान की स्थिति स्पष्ट करने का प्रयास किया है। जिस पर बवाल मचा है।
     सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान के संरक्षक होने के नाते एक ऐतिहासिक फैसले में राज्यपालों के अधिकार की ’सीमा’ की व्याख्या की है। कुछ समय पहले पंजाब के राज्यपाल द्वारा 7 विधेयक रोकने पर सरकार सुप्रीम कोर्ट गई थी। कोर्ट ने तब भी कहा था कि राज्यपाल आग से खेल रहे हैं। तमिलनाडु के राज्यपाल ने 2023 में राज्य सरकार का अभिभाषण पढ़ने से इंकार कर दिया था। वर्ष 2022 में डीएमके ने राष्ट्रपति से उन्हें हटाने की मांग कर दी थी। तेलंगाना के राज्यपाल ने एमएलसी नामांकन व बजट मंजूर करने से इंकार कर दिया था। प. बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मौजूदा राज्यपाल का राज्य सरकार से टकराव जग जाहिर है। ऐसे में यह जरूरी हो गया था कि भारत के संविधान के संरक्षक अपनी संवैधानिक भूमिका में उतर आएं।
     इस नेक कार्य को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने शानदार तरीके से करने का प्रयास किया है। तमिलनाडु के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा बैंच ने कहा है कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पॉवर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा से पास 10 विधेयक रोककर रखने पर राज्यपाल आरएन रवि को कड़ी फटकार लगाई। साथ ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत असाधारण शक्ति का प्रयोग करके इन विधेयकों को उसी तिथि पारित मानने का आदेश दिया, जब उन्हें पुनः राज्यपाल को भेजा गया था।
     फैसला सुनाते हुए जस्टिस पारदीवाला ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी कि राज्यपाल एक बुद्धिमान संवैधानिक प्रमुख होगा। राज्यपाल विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजना चाहें, तो अधिकतम 1 माह में भेजना होगा। यहां अगर सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति के संविधान के प्रति कर्तव्यों की भी व्याख्या कर देता तो शायद मौजूदा लोकतंत्र के लिए यह अधिक लाभकारी होता। क्योंकि राज्यपाल और राष्ट्रपति की शपथ एक जैसी ही होती है जिसमें उसकी डयूटी भी स्पष्ट रूप से बताई गई है। राष्ट्रपति भारत के संविधान के मूल अनुच्छेद 60 के तहत राष्ट्रवासियों की भलाई के लिए शपथ लेता है और राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 159 के तहत प्रदेशवासियों की भलाई की शपथ लेता है। इस अनुच्छेद में दोनों भारत के संविधान के बचाव, संरक्षण और रक्षा करने का वायदा देशवासियों से करते हैं। लेकिन हजारों मामलों में ऐसा कभी हुआ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल से संबंधित याचिका में स्पष्ट किया कि यदि वह प्रांतीय सरकार के बिल को सहमति नहीं देते हैं तो 3 माह में इसे सरकार को लौटाना होगा। यदि विधानसभा में पास विधेयक को पुनर्विचार के बाद दोबारा भेजा जाता है तो राज्यपाल को इसे एक माह में मंजूरी देनी ही होगी। यहां सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की संवैधानिक बाध्यता को स्पष्ट किया।
     इस आदेश के बाद सबसे अधिक शोर उपराष्ट्रपति धनकड़ ने मचाया और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ही टिप्पणी कर दी। धनकड़ की बात को ज्यादा गंभीरता से इसलिए नहीं लिया जा रहा है कि वह स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद का उलंग्घन कर दिया है। जबकि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस बात को समझाने के लिए काफी है कि देश में जितनी भी ताकतें हैं उनके सिर पर भारत का संविधान बैठा है और सबकी ड्यूटी भारत के संविधान के प्रति संविधान में ही स्पष्ट रूप से बताई गई है। ऐसे में यदि राज्यपाल और राष्ट्रपति अपनी संवैधानिक ड्यूटी में कोताही बरतेंगे तो उन्हें भारत के संविधान का संरक्षक होने के नाते अनुच्छेद 142 को इस्तेमाल करना ही पड़ेगा।

 
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